दश्त-ए-जुनूँ में आबला-पा ले गया मुझे मेरी मोहब्बतों का सिला ले गया मुझे वीरान इस नज़र ने किया मुझ को और फिर तन्हाइयों का दश्त बहा ले गया मुझे याँ भी वही ज़मीन वही आसमाँ मिला मैं सोचता रहा कि वो क्या ले गया मुझे इक बार भी वो मुझ से मुख़ातब नहीं हुआ उस के क़रीब ये ही गिला ले गया मुझे वो क्या मिला न ध्यान रहा बादबान का गिर्दाब में सफ़ीना मिरा ले गया मुझे गर वो नज़र-शनास नहीं था तो किस तरह देखा उन्हें उन्ही को सुना ले गया मुझे कश्ती भँवर में उन की निगाहों में बेबसी 'मंज़र' यही तो अब के उठा ले गया मुझे