दश्त-ए-तख़य्युलात में जब भी सफ़र हुआ जाने कहाँ कहाँ से हमारा गुज़र हुआ लोगो की तल्ख़ियों का कुछ ऐसा असर हुआ दिल के हर एक गोशे में रक़्स-ए-शरर हुआ उस की तरफ़ से मैं तो हुआ बे-ख़बर मगर मेरी तरफ़ से वो न कभी बे-ख़बर हुआ बिगड़ी है ऐसी शक्ल हवादिस की मार से हैरान आइना भी मुझे देख कर हुआ इक बार ही तो काँधे पे रक्खा था उस ने सर फिर ऐसा इत्तिफ़ाक़ कहाँ उम्र भर हुआ जिस की नज़र में वुसअ'त-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल थी उस का वजूद मर्कज़-ए-अहल-ए-नज़र हुआ पहले तो इक मकान की सूरत ही था फ़क़त तशरीफ़ आप लाए तो घर मेरा घर हुआ उस को हमारी दश्त-नवर्दी से है ख़ुशी इस से ग़रज़ नहीं कि कोई दर-ब-दर हुआ सब की समझ में आता कहाँ है ये इल्म-ओ-फ़न जिस ने समझ लिया उसे वो दीदा-वर हुआ 'रहबर' तवील उम्र भी जीने से फ़ैज़ क्या कुछ मक़्सद-ए-हयात न पूरा अगर हुआ