दश्त-ज़ार-ए-ग़म में आतिश ज़ेर-ए-पा हम भी रहे इक सुलगती तिश्नगी से आश्ना हम भी रहे इंतिज़ार अपने लिए था इंतिशार अपने लिए यास का सहरा समुंदर आस का हम भी रहे तल्ख़ तुर्श और तेज़ मिस्ल-ए-ज़हर दुनिया ही न थी गर्द सर्द और तुंद मानिंद-ए-हवा हम भी रहे जम गईं हम पर भी नज़रें ज़ुहरा-ओ-मिर्रीख़ की वक़्त के दिल के धड़कने की सदा हम भी रहे जिस्म के ज़ुल्मत-कदे में सूरत-ए-क़ंदील ज़ात सैकड़ों पर्दों में रह कर बरमला हम भी रहे कैसी महरूमी है 'अकबर' ये कि ख़ुद अपने लिए अपने ही साए की सूरत ना-रसा हम भी रहे