दास्तान-ए-उल्फ़त में कैसी ये घड़ी आई रक़्स में है परवाना ख़ौफ़ में तमाशाई इस जहाँ के मकतब के कुछ सबक़ निराले थे मसअले उलझने पर ज़िंदगी समझ आई उन से वस्ल के लम्हे मुख़्तसर से थे लेकिन दिल में उन की यादों की गूँजती है शहनाई उम्र ढलने पर ऐसे दूर हो गए अपने जैसे शाम होते ही गुम हो जाए परछाई तुम ने उस के हाथों आज क्या पयाम भेजा है क्यों लजा रही है यूँ मुस्कुरा के पुरवाई अजनबी हैं चेहरे पर मैं नहीं हूँ बेगाना तेरी मेरी रूहों की जन्मों की शनासाई उन लबों की लर्ज़िश की हर अदा क़यामत है लफ़्ज़ उन के जादू हैं लम्स है करिश्माई