दयार-ए-जाँ पे मुसल्लत अजब ज़माना रहा कि दिल में दर्द लबों पर रवाँ तराना रहा किसी पे बर्क़ गिरी शाख़-ए-जाँ सुलग उट्ठी किसी पे संग चले सर मिरा निशाना रहा क़दम क़दम पे मिली गरचे सरसर-ए-ख़ूँ-रेज़ हुजूम-ए-गुल उसी अंदाज़ से रवाना रहा अदू-ए-दोस्त कभी मुझ को मो'तबर न हुआ अज़ल से अपना ये मेआ'र-ए-दोस्ताना रहा जो क़दर-ए-फ़न का तअ'य्युन करो तो ध्यान रहे इसी सबब से अदू मेरा इक ज़माना रहा जो बात कहनी हुई हम ने बरमला कह दी 'सुहैल' शिकवा किसी से न ग़ाएबाना रहा