दे आया अपनी जान भी दरबार-ए-इश्क़ में फिर भी न बन सका ख़बर अख़बार-ए-इश्क़ में जब मिल न पाया उस से मुझे इज़्न-ए-गुफ़्तुगू मैं इक किताब बन गया इज़हार-ए-इश्क़ में क़ीमत लगा सका न ख़रीदार फिर भी मैं जिंस-ए-वफ़ा बना रहा बाज़ार-ए-इश्क़ में शायद यही थी उस की मोहब्बत की इंतिहा मुझ को भी उस ने चुन दिया दीवार-ए-इश्क़ में तह तक मैं खोज आया हुआ ग़र्क़ बार बार आया न फिर भी तैरना मँझदार-ए-इश्क़ में