दे सकेगा न तुम्हें फिर कोई आवाज़ कहीं मेरी हस्ती का अगर टूट गया साज़ कहीं इश्क़ महकूम सही बेकस-ओ-मजबूर सही हुस्न तन्हा भी हुआ है असर-अंदाज़ कहीं ग़म-ए-ना-क़दरी-ए-दुनिया तो नहीं है लेकिन निगह-ए-दोस्त न कर दे नज़र-अंदाज़ कहीं ख़ामी-ए-ज़ौक़-ए-तलब ने हमें रक्खा महरूम ये ग़लत है न सुनी हो तिरी आवाज़ कहीं बहर-ए-हस्ती में जो उभरा तो उभारा तू ने मैं हुआ आप न ऐ दोस्त सर-अफ़राज़ कहीं रंग माहौल-ए-चमन से ये हुवैदा है 'सग़ीर' काम आएगी मिरी जुरअत-ए-पर्वाज़ कहीं