देख इन आँखों से क्या जल-थल कर रक्खा है ग़म सी आग को हम ने बादल कर रक्खा है जिस ने राह के पेड़ों की सब शाख़ें काटीं सब ने उसी के सर पर आँचल कर रक्खा है कोई पहाड़ है अपनी ज़ात के अंदर जिस ने ख़ुद हम से भी हम को ओझल कर रक्खा है पत्थर ले कर सारा शहर है उस के पीछे इक पागल ने सब को पागल कर रक्खा है उस ने ख़ाली दश्त बसाने की कोशिश में भरे-पुरे शहरों को जंगल कर रक्खा है तेरी हस्ती एक फ़ुरात सही पर तू ने मेरे तो आँगन को करबल कर रक्खा है तेरे जलाल के मुनकिर तो चंद एक हैं लेकिन तेरे अज़ाब ने सब को बे-कल कर रक्खा है अब 'शहज़ाद' ज़माने से क्या लेना-देना हम ने बाब-ए-दर्द मुकम्मल कर रक्खा है