देख कर हम को असीर-ए-आरज़ू और भी वो हो गए बेगाना-ख़ू फाड़ डाला दस्त-ए-वहशत ने जिसे फिर करें क्या इस गरेबाँ का रफ़ू फिर सजाओ महफ़िल-ए-दार-ओ-रसन मुज़्तरिब है फिर ज़बान-ए-गुफ़्तुगू गर ज़ियादा से ज़ियादा हों गुनह कम नहीं है आयत-ए-ला-तक़नतू मुझ को डर लगता है अपने शहर में हैं बहुत ऊँचे यहाँ के काख़-ओ-कू जब भी रुत आती है पतझड़ की यहाँ चूस लेती है बहारों का लहू रह के 'नजमी' ने पस-ए-पर्दा यहाँ कर दिया है सब को महव-ए-जुस्तुजू