देख के अर्ज़ां लहू सुर्ख़ी-ए-मंज़र ख़मोश बाज़ी-ए-जाँ पर मिरी तेग़ भी शश्दर ख़मोश अक्स मिरा मुंतशिर और ये आलम कि है एक इक आईना चुप एक इक पत्थर ख़मोश तेग़-ए-नफ़स को बहुत नाज़ था रफ़्तार पर हो गई आख़िर मिरे ख़ूँ में नहा कर ख़मोश अर्सा-ए-हैरत में गुम आइना-ख़ाने मिरे ख़ेमा-ए-मिज़्गाँ में हैं ख़्वाब के पैकर ख़मोश ख़ौफ़ से सब दम-ब-ख़ुद फ़िक्र से चेहरे उदास मौज-ए-हवा क्यूँ है चुप क्यूँ है समुंदर ख़मोश कोई अलामत तो हो कोई निशाँ तो मिले क्यूँ है लहू बे-सदा हो गए क्यूँ सर ख़मोश