देख ले जो आलम उस के हुस्न-ए-बाला-दस्त का हौसला इतना कहाँ अपनी निगाह-ए-पस्त का नीस्त रहते हम तो ये सैरें कहाँ से देखते ये फ़क़त एहसान है उस ज़ात-ए-पाक-ए-मस्त का बे-सदा आ कर लगा और हो गया सीने के पार ये ख़दंग-ए-साफ़ था किस बे-निशाँ की शस्त का बात कुछ कहता है और निकले है मुँह से कुछ 'नज़ीर' ये नशा तुझ को हुआ किस की निगाह-ए-मस्त का