देख लेते हो मोहब्बत से यही काफ़ी है दिल धड़कता है सुहूलत से यही काफ़ी है मुद्दतों से नहीं देखा तिरा जल्वा लेकिन याद आ जाते हो शिद्दत से यही काफ़ी है जो भी रस्ते में गुज़रता है मिरे पहलू से देखता है तिरी निस्बत से यही काफ़ी है मेरे आँगन में उतरता नहीं वो चाँद कभी देख लेते हैं उसे छत से यही काफ़ी है सारी दुनिया से उलझते हैं मगर तेरा कहा मान लेते हैं शराफ़त से यही काफ़ी है हाल दुनिया के सताए हुए कुछ लोगों का पूछ लेते हो शरारत से यही काफ़ी है क्या हुआ हम को मयस्सर जो ज़र-ओ-माल नहीं कट रही है बड़ी 'इज़्ज़त से यही काफ़ी है आज के ‘अहद-ए-तग़ाफ़ुल में किसी दर पे 'मुनीर' कोई आ जाए ज़रूरत से यही काफ़ी है