देख माज़ी के दरीचों को कभी खोला न कर भागते लम्हों के पीछे इस तरह दौड़ा न कर ऐ मिरे सूरज मिरे साए के देरीना रफ़ीक़ रास्ते में रौशनी बन कर बिखर जाया न कर ये भी मुमकिन है तिरे दीवार-ओ-दर तेरे न हों घर के अंदर बैठ कर तू इस तरह रोया न कर कह लिया कर गाहे गाहे तू कोई अच्छी ग़ज़ल महफ़िल-ए-शे'र-ओ-सुख़न से ख़ुद को यूँ तन्हा न कर कह रही है मुझ से मेरे घर की तारीकी 'फ़राज़' रात हो जाए तो घर से तू कहीं जाया न कर