देख तू यार-ए-बादा-कश! मैं ने भी काम क्या किया दे के कबाब-ए-दिल तुझे हक़्क़-ए-नमक अदा किया क्यूँ सग-ए-यार से ख़जिल मुझ को पस-अज़-फ़ना क्या खा गया उस्तुख़्वाँ मिरे तू ने ये क्या हुमा किया ज़ख़्म-ए-जिगर से दम-ब-दम कब नहीं ख़ूँ-बहा किया तो भी न क़ातिल अपने से दावा-ए-ख़ूँ-बहा किया उस बुत-ए-रश्क-ए-गुल ने जब बंद-ए-क़बा को वा किया अपनी नज़र ये ग़ुंचा दो हाथ से फिर मला किया कौन से दिन न यार ने चश्म को सुर्मा-सा किया कब न दिल-ए-सियाह-बख़्त ख़ाक में तू मिला किया दिलबर-ए-शोला-ख़ू ने जब ज़ुल्फ़ को रुख़ पे वा किया दिल पे मैं सूरा-ए-दुख़ाँ करने को दम पढ़ा किया बादा-कशी को साक़िया किस की मुझे बता हुबाब ज़ोर-ए-भँवर के चाक पर साग़र-ए-मय बना किया वस्ल की रात हम-नशीं क्यूँकि कटी न पूछ कुछ बरसर-ए-सुल्ह में रहा तिस पे भी वो लड़ा किया पाए-निगार से लिपट चोर बनी तो आप को ही हाथ न क्यूँ तिरे बंधीं काम ये क्या हिना किया दिल की जुदाई का कहूँ किस से मैं माजरा-ए-ग़म सैल-ए-सरिश्क-ए-चश्म-ए-तर शाम-ओ-सहर बहा किया शक्ल-ए-असा-ए-मूसवी था तो वो गेसू-ए-दराज़ पर उसे दस्त-ए-शाना ने दे के ख़म और दुता किया ज़ेब-ए-सर-ए-शहाँ कभी तू ने न देखा तीरा-बख़्त बाल-ए-मगस ने कब दिला कार-ए-पर-ए-हुमा किया तार-ए-नफ़स उलझ गया मेरे गुलू में आ के जब नाख़ुन-ए-तेग़-ए-यार को मैं ने गिरह-कुशा किया बोसा-ए-लब से एक दिन उस के हुआ न कामयाब दिलबर-ए-बद-ज़बाँ की मैं गालियाँ ही सुना किया आ के सलासिल ऐ जुनूँ क्यूँ न क़दम ले ब'अद-ए-क़ैस इस का भी हम ने सिलसिला अज़-सर-ए-नौ बपा किया मुँह तो न था ये ग़ैर का उस को खिलाए बर्ग-ए-पाँ पर न मिरा जो बस चला ख़ून-ए-जिगर पिया किया उस की शिकस्तगी का ग़म क्यूँ न हो मुझ को साक़िया मेरी बग़ल में आह याँ शीशा-ए-दिल रहा किया तार-ए-नफ़स जुदा किया बरबत-ए-तन से मेरे आह काैदक-ए-मुतरिब और क्या तुझ को कहूँ बजा किया कोह को खींचता जो तू काह-रुबा तो जानते इक पर-ए-काह को उठा नाज़ किया तो क्या किया क्यूँ हो ख़िज़्र-ए-रह-रवाँ ख़ाक-नशीनी पे मिरी जिस ने बशक्ल-ए-नक़्श-ए-पा मुझ को है रहनुमा किया शोला-रुख़ों के इश्क़ ने कुंज-ए-मज़ार में भी आह सोने दिया न चैन से मैं तो सदा जला किया मुझ को है हिज्र-ओ-वस्ल एक इस की ख़ुशी न उस का ग़म कैसी मुसीबतों के दिन बार-ए-ख़ुदा भरा किया वस्ल हुआ तो ये हुआ मार-ए-सियाह जान कर रात भर अपनी ज़ुल्फ़ के साए से वो डरा किया और मैं मुद्दआ-तलब ऐश से ना-उमीद हो शोला-ए-शम्अ की तरह सर को पड़ा धुना किया मुद्रिका-ए-बशर है क्या पाए जो उस की कुनह को चाहा जो उस ने सो किया कौन कहे कि क्या किया यानी बना के चश्म को सूरत-ए-शीशा-ए-हुबाब साहिब-ए-ज़र्फ़ था जो दिल जाम-ए-जहाँ-नुमा किया अपनी शरारतों से वो बाज़ न आया ऐ 'नसीर' मुझ को रुला के अब्र साँ बर्क़-ए-नमत हँसा किया