देखा था जो भी ख़्वाब में अब क्या है कुछ नहीं इस हुस्न और शबाब में अब क्या है कुछ नहीं मेरे लिए तो जैसे वो काग़ज़ का फूल था उस ख़ुशनुमा गुलाब में अब क्या है कुछ नहीं अब हैं किताब-ए-ज़ीस्त के औराक़ मुंतशिर इस के हर एक बाब में अब क्या है कुछ नहीं मुझ को दिखा रहा था अभी तक वो सब्ज़ बाग़ है ज़िंदगी अज़ाब में अब क्या है कुछ नहीं ख़ुश-फ़हमी के शिकार थे वा'दे पे जिस के सब क्या क्या मिला हिसाब में अब क्या है कुछ नहीं जो कुछ बचा के रक्खा था आइंदा के लिए सब मिल गया वो आब में अब क्या है कुछ नहीं मेरा सवाल उस के लिए ला-जवाब था जो कुछ मिला जवाब में अब क्या है कुछ नहीं कल तक समझ रहा था जिसे जान-ए-आरज़ू इस हुस्न-ए-इंतिख़ाब में अब क्या है कुछ नहीं रौशन थी जिन से शम-ए-शबिस्तान-ए-ज़िंदगी यादों के इस सराब में अब क्या है कुछ नहीं जो लुत्फ़ उस की नुक़रई आवाज़ में मिला इस चंग और रबाब में अब क्या है कुछ नहीं 'बर्क़ी' था जिस का रू-ए-हसीं मिस्ल-ए-माहताब उस रश्क-ए-माहताब में अब क्या है कुछ नहीं