देखो कोई ख़्वाब दिन ढले का दरिया के इस आख़िरी सिरे का ज़ाहिर में थे पुर-तपाक लम्हे मौसम था वो रिश्ते टूटने का काग़ज़ पे सुलगते कुछ सितारे मक्तूब सा कोई शब ढले का क़ुर्बत की छटी जो धुँद देखा रौशन था चराग़ फ़ासले का हर आँख में ढूँढता हूँ ख़ुद को मैं नूर हूँ बुझते रतजगे का टहनी से गिरा दो बर्ग-ए-लर्ज़ां इम्कान है ताज़ा सानेहे का