देखो तो कुछ ज़ियाँ नहीं खोने के बावजूद होता है अब भी इश्क़ न होने के बावजूद शायद ये ख़ाक में ही समाने की मश्क़ हो सोता हूँ फ़र्श पर जो बिछौने के बावजूद करता हूँ नींद में ही सफ़र सारे शहर का फ़ारिग़ तो बैठता नहीं सोने के बावजूद होती नहीं है मेरी तसल्ली किसी तरह रोने का इंतिज़ार है रोने के बावजूद पानी तो एक उम्र से मुझ पर है बे-असर मैला हूँ जैसे और भी धोने के बावजूद बोझल तो मैं कुछ और भी रहता हूँ रात दिन सामान-ए-ख़्वाब रात को ढोने के बावजूद थी प्यास तो वहीं की वहीं और मैं वहाँ ख़ुश था ज़रा सा होंट भिगोने के बावजूद ये कीमिया-गरी मिरी अपनी है इस लिए मैं राख ही समझता हूँ सोने के बावजूद डरता हूँ फिर कहीं से निकालें न सर 'ज़फ़र' मैं उस को अपने साथ डुबोने के बावजूद