दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं वीरान हैं मोहल्ले सुनसान घर पड़े हैं जब देखता हूँ उन को तब ता-कमर पड़े हैं ये बाल मेरे जी के पीछे मगर पड़े हैं इज़्ज़त ये प्यादगी की कम है कि घोड़े वाले घोड़े से देखते ही मुझ को उतर पड़े हैं देखा तो इस चमन में बाद-ए-ख़िज़ाँ के हाथों उखड़े हुए ज़मीं से क्या क्या शजर पड़े हैं क़रियात-ए-हिन्द का अब ये रंग है कि कोसों जावे कोई जिधर को उजड़े नगर पड़े हैं रोया है इस चमन में कौन आ के ऐ सबा जो हर नख़्ल-ए-गुल के नीचे लख़्त-ए-जिगर पड़े हैं बिगड़ा किए हैं हम भी उस नाज़नीं से हर दम काम अपने रफ़्ता रफ़्ता यूहीँ सँवर पड़े हैं हैं जान ओ दिल के ख़्वाहाँ क्या सर के बाल उस के जो कुछ इधर पड़े हैं और कुछ उधर पड़े हैं मक़्तल में ये तमाशा उस के नया में देखा ईधर को धड़ पड़े हैं ऊधर को सर पड़े हैं बुलबुल का बाग़बाँ से क्या अब निशान पूछूँ बैरूं दर-ए-चमन के यक मुश्त-ए-पर पड़े हैं शबनम गुलाब-पाशी ग़ुंचे की जल्द उठा ला गुल बिस्तर-ए-ग़शी पर सब बे-ख़बर पड़े हैं ऐ 'मुसहफ़ी' मैं उन को अब छोड़ता हूँ कोई वो ब'अद मुद्दतों के मेरी नज़र पड़े हैं