देर से अपनी आग में ख़ुद ही जलता हूँ हूँ तो भरी दुनिया में लेकिन तन्हा हूँ ग़म की आग में तप कर कितना निखरा हूँ अब महसूस हुआ है मैं भी सोना हूँ बाद-ए-हवादिस ऐसा उड़ाए फिरती है जैसे मैं इक पेड़ का टूटा पत्ता हूँ मुद्दत से जिस पर कोई दस्तक न हुई यारो मैं घर का ऐसा दरवाज़ा हूँ अपनी बर्बादी का क़िस्सा कैसे कहूँ होंटों पर जो आ न सका वो नग़्मा हूँ मैं औरों के ग़म का मुदावा क्या सोचूँ मैं तो ख़ुद अपने ही ग़म में उलझा हूँ यारो जाओ और कोई धंदा सोचो मेरी वुसअ'त मत नापो मैं सहरा हूँ अब तो 'मेहदी' मुझ को चैन से सोने दो सोचो मैं कितनी रातों का जागा हूँ