देर तक उठ न सका वाँ से वो दीवाना-ए-दोस्त छिड़ गया जब कि कहीं बैठ के अफ़साना-ए-दोस्त आज उठे जाते हैं दरबाँ की जफ़ा से लेकिन ज़िंदगी भर कहीं छुटता है दर-ए-ख़ाना-ए-दोस्त हिज्र में हालत-ए-दिल की हैं वो आँखें निगराँ देखी थी जिन से कभी रौनक-ए-काशाना-ए-दोस्त राहबर शौक़-ए-दिली सर पे अजल दिल बेताब बे-ख़बर यूँ मैं चला हूँ तरफ़-ए-ख़ाना-ए-दोस्त आज क्यूँ हद से सिवा दिल को ख़ुशी है 'महशर' क्या बुलाए हुए जाते हो सू-ए-ख़ाना-ए-दोस्त