देता हूँ दिल जिसे वो कहीं बेवफ़ा न हो ये इश्क़ मेरे वास्ते शायद क़ज़ा न हो दूर अपने दर से तुम न करो ऐ सनम उसे जिस को ज़रा जहाँ में कहीं आसरा न हो राहत से मुझ को नींद तो आई मज़ार में पहलू को मेरे चीर के दिल चल बसा न हो मरने के बा'द भी यही धड़का रहा क्या मिल कर सबा से ख़ाक हमारी हवा न हो शिकवा करूँ तो यार का पुर-ख़ौफ़ है यही नाज़ुक मिज़ाज है वो ये सुन कर ख़फ़ा न हो पर्दे से दिल के बात जो करता है मुझे से अब आता है ये ख़याल कहीं ख़ुद ख़ुदा न हो रंगत है ज़र्द रुख़ की तो ख़ुश्की लबों पर है आसार इश्क़ के हैं कहीं दिल लगा न हो मर जाऊँ ऐ 'जमीला' अगर इश्क़-ए-ग़ौस में मुमकिन नहीं कि ख़ाक-ए-लहद कीमिया न हो