ढलवान पर गुलाब तराई में घास है इस ख़ित्ता-ए-चमन को मिरे ख़ूँ की प्यास है मौसम की आँधियों में बिखर जाए टूट कर इस कारगाह-ए-शीशा-गरी को ये रास है मैं जानता हूँ शर्म से बोझल निगाह को ये नंगी ख़्वाहिशों का पुराना लिबास है जो बुझ चुका उस एक सितारे की रौशनी अब भी सवाद-ए-शहर-ए-दिल-ओ-जाँ के पास है है याद आज भी उन्ही होंटों का ज़ाइक़ा हाथों में अब भी उस के पसीने की बास है दीवार पर लगी हुई तस्वीर देखना माज़ी की दास्तान का ये इक़्तिबास है ठिठुरी हुई है रूह चमकता है आफ़्ताब दोनों के दरमियान फ़सील-ए-हवास है क़स्र-ए-सुख़न में खोलिए लफ़्ज़ों की खिड़कियाँ इस दौर में बस इक यही राह-ए-निकास है 'इरशाद' सारी काविशें बेकार महज़ हैं सरमा की रात से तुझे हिद्दत की आस है