धूप बढ़ने के जो आसार हुए कितने साए के तरफ़-दार हुए तप के कुंदन वो बनेंगे कैसे जो झुलसने को न तय्यार हुए है दवा इश्क़ तो बीमारी भी हम दवा के लिए बीमार हुए जो न जिस्मों के तलबगार हुए सिर्फ़ वो वस्ल के हक़दार हुए क़ैद से उन को छुड़ाए कैसे अपने हाथों जो गिरफ़्तार हुए न हुए ग़म-ज़दा जो ग़म से मिरे वो बड़े ख़ुश है कि ग़म-ख़्वार हुए बात करते हैं जो अक़दार की वो जब भी मौक़ा मिला बाज़ार हुए आइने ढूँडते हो तुम हर सू और हम चेहरे से बेज़ार हुए तब तलक थे बड़े नक़्क़ाद 'नवा' जब तलक ख़ुद से न दो-चार हुए