धूप जब ढल गई तो साया नहीं ये तअल्लुक़ तो कोई रिश्ता नहीं लोग किस किस तरह से ज़िंदा हैं हमें मरने का भी सलीक़ा नहीं सोचिए तो हज़ार पहलू हैं देखिए बात इतनी सादा नहीं ख़्वाब भी इस तरफ़ नहीं आते इस मकाँ में कोई दरीचा नहीं चलो मर कर कहीं ठिकाने लगें हम कि जिन का कोई ठिकाना नहीं मंज़िलें भी नहीं मुक़द्दर में और पलटना हमें गवारा नहीं दूसरों से भी रब्त-ज़ब्त रखें ज़िंदगी है कोई जज़ीरा नहीं कब भटक जाए 'आफ़्ताब' हुसैन आदमी का कोई भरोसा नहीं