धूप के जाते ही मर जाऊँगा मैं एक साया हूँ बिखर जाऊँगा मैं ए'तिबार-ए-दोस्ती का रंग हूँ बे-यक़ीनी में उतर जाऊँगा मैं दिन का सारा ज़हर पी कर, आज फिर रात के बिस्तर पे मर जाऊँगा मैं फिर कभी तुम से मिलूँगा रास्तो! लौट कर फ़िलहाल घर जाऊँगा मैं उस से मिलने की तलब में आऊँगा और बस, यूँ ही गुज़र जाऊँगा मैं मैं कि इल्ज़ाम-ए-मोहब्बत हूँ 'नबील' क्या ख़बर किस किस के सर जाऊँगा मैं