धूप को गर्म न कह साया-ए-दीवार न देख तुझ को चलना है तो फिर वक़्त की रफ़्तार न देख मेरी फ़िक्रों से उलझ मुझ को समझने के लिए दूर से मौज में उलझी हुई पतवार न देख उन की रूहों को परख आदमी हैं भी या नहीं सिर्फ़ सूरत पे न जा जुब्बा-ओ-दस्तार न देख अपने आँगन ही में कर फ़िक्र-ए-नुमू-ए-गुलशन कोई जन्नत भी अगर है पस-ए-दीवार न देख इन दमकते हुए लम्हात के जादू से निकल वक़्त की चाल समझ शोख़ी-ए-रफ़्तार न देख ग़म से लड़ना है तो फिर ग़म-ज़दा सूरत न बना ज़िंदा रहना है तो मुर्दों के ये अतवार न देख मेरे नग़्मात को तफ़रीह के कानों से न सुन रक़्स की प्यास है आँखों में तो पैकार न देख क़द्रदानी को मरातिब के तराज़ू में न तोल कौन 'अफ़सर' हुआ यूसुफ़ का ख़रीदार न देख