ढूँडते ढूँडते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला एक पर्दा जो उठा दूसरा पर्दा निकला मंज़र-ए-ज़ीस्त सरासर तह-ओ-बाला निकला ग़ौर से देखा तो हर शख़्स तमाशा निकला एक ही रंग का ग़म-ख़ाना-ए-दुनिया निकला ग़म-ए-जानाँ भी ग़म-ए-ज़ीस्त का साया निकला इस रह-ए-ज़ीस्त को हम अजनबी समझे थे मगर जो भी पत्थर मिला बरसों का शनासा निकला आरज़ू हसरत और उम्मीद शिकायत आँसू इक तिरा ज़िक्र था और बीच में क्या क्या निकला घर से निकले थे कि आईना दिखाएँ सब को लेकिन हर अक्स में अपना ही सरापा निकला क्यूँ न हम भी करें उस नक़्श-ए-कफ़-ए-पा की तलाश शोला-ए-तूर भी तो एक बहाना निकला जी में था बैठ के कुछ अपनी कहेंगे 'सरवर' तू भी कम-बख़्त ज़माने का सताया निकला