दिए पलकों के सारे बुझ रहे हैं सर-ए-शब ही सितारे बुझ रहे हैं इन आँखों ने जिन्हें रौशन किया था वो सब मंज़र हमारे बुझ रहे हैं बहुत कम हो चली है आतिश-ए-ख़ाक ज़मीं तेरे शरारे बुझ रहे हैं सियाहत हाथ मल कर रह गई है सर-ए-साहिल शिकारे बुझ रहे हैं पए शब सैर आया भी कहाँ मैं जहाँ सारे नज़ारे बुझ रहे हैं न हलचल है न कोई मौज-ए-बोसा समुंदर के किनारे बुझ रहे हैं मैं यख़-बस्ता हुआ जाता हूँ 'अफ़सर' मिरे जज़्बात सारे बुझ रहे हैं