दिखा रही है जहाँ धूप अब असर अपना बिखेरता था वहीं साया इक शजर अपना फलों का अब के भी पहले से हो गया सौदा दरख़्त छू न सकेंगे कोई समर अपना बहुत ही तेज़ था ख़ंजर हवा के हाथों में बचा सका कोई ताइर न बाल-ओ-पर अपना कभी जो सामने आया तो छुप गया हूँ कभी ये एक खेल रहा ख़ुद से उम्र-भर अपना अभी तो बाक़ी हैं मंज़िल की ठोकरें कुछ और यहीं पे ख़त्म नहीं है अभी सफ़र अपना ये कौन शम्अ' लिए पेश पेश चलता रहा दिखाई भी न दिया कौन था ख़िज़र अपना निज़ाम-ए-जब्र की वो कर रहा है फिर तौसीअ' बढ़ा रहा है वो फिर हल्क़ा-ए-असर अपना कोई नहीं है जो शमशीर छीन ले उस से छुपाए फिरता है हर एक शख़्स सर अपना किसी पे खुलता भी क्या अपना कर्ब-ए-ग़म 'मोहसिन' न कोई मर्सियाँ-ख़्वाँ था न नौहागर अपना