दिल अभी टूटा नहीं है बे-रुख़ी के बावजूद ज़िंदगी में क्या रहा है ज़िंदगी के बावजूद आँखें ख़ीरा हो गईं उस हुस्न-ए-आलम-ताब से कुछ नज़र आता नहीं है रौशनी के बावजूद इंक़लाब-ए-क़ौम-ओ-मिल्लत है कभी है आश्ती और कभी पैग़म्बरी है शायरी के बावजूद आज अपने अह्द में ये आदमी को क्या हुआ आदमी सा कुछ नहीं है आदमी के बावजूद चाँदनी दरिया ख़ुनक मौसम मोहब्बत और 'शुजा' अब वो फ़ुर्सत ही कहाँ है दिल-कशी के बावजूद