दिल भर आए और अब्र-ए-दीदा में पानी न हो ये ज़मीं सहरा दिखाई दे जो बारानी न हो शौक़ इतना सहल क्यूँ उस पार ले जाए मुझे फिर पलट आऊँ अगर दरिया में तुग़्यानी न हो कान बजते हैं हवा की सीटियों पर रात-भर चौंक उठता हूँ कि आहट जानी-पहचानी न हो हो गए बे-ख़ुद तो टीसों का मज़ा छिन जाएगा रोकता हूँ दर्द की इतनी फ़रावानी न हो तेरे होने से मिरे दिल में है यादों की चमक चाँद बुझ जाए अगर सूरज में ताबानी न हो ढाँप ले मिट्टी से तन अपना अगर मक़्दूर हो पैरहन कैसा अगर एहसास-ए-उर्यानी न हो जी रहा हूँ मैं कि औरों से भी है वाबस्तगी मौत आ जाए अगर कोई परेशानी न हो डाल दे 'शाहिद' शफ़क़ पर रात की काली रिदा मेरे दरवाज़े से ज़ाहिर घर की वीरानी न हो