दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से कैसी तन्हाई टपकती है दर ओ दीवार से मंज़िल-ए-इक़रार अपनी आख़िरी मंज़िल है अब हम कि आए हैं गुज़र कर जादा-ए-इंकार से तर्जुमाँ था अक्स अपने चेहरा-ए-गुम-गश्ता का इक सदा आती रही आईना-ए-असरार से मांद पड़ते जा रहे थे ख़्वाब-तस्वीरों के रंग रात उतरती जा रही थी दर्द की दीवार से मैं भी 'अकबर' कर्ब-आगीं जानता हूँ ज़ीस्त को मुंसलिक है फ़िक्र मेरी फ़िक्र-ए-शोपनहॉर से