दिल दश्त की सूरत था समुंदर हुआ कैसे सरसब्ज़ ख़िज़ाँ-ज़ाद मुक़द्दर हुआ कैसे छाँव में ढला कैसे तमाज़त भरा मौसम फूलों से भी नाज़ुक मिरा पैकर हुआ कैसे फिरती थी तमन्नाओं भरी शाल लपेटे फिर जज़्बा-ए-गुमनाम उजागर हुआ कैसे मुद्दत से ये उलझी हुई गुत्थी नहीं सुलझी वो मुझ में समाया था तो बे-घर हुआ कैसे इक उम्र किसी पल जो मिरे हाथ ना आया वो ख़्वाब सा एहसास मुसख़्ख़र हुआ कैसे इक राज़ जो हमराज़ रहा बरसों 'समीना' अब सोचती हूँ फ़ाश जहाँ पर हुआ कैसे