दिल ऐ दिल ये तर्ज़ नहीं कुछ इश्क़ के ओहदे-दारों की सुनते हो मजबूरों की और कहते हो मुख़तारों की फिर मौजों से चीख़ सी उट्ठी मुझ को तो ये धोका है गई रात भी पतवारों से ख़ूब निभी मंजधारों की याद दिला दी है सूरज के आस-पास इक बदली ने काली क़मीसों के साए में धूप सपेद ग़रारों की पीपल के पत्तों के साए कब तक तुम्हें सराहेंगे एक न इक दिन क़िस्मत जाग उठेगी राह-गुज़ारों की ऐ गुल-ए-दामन-ए-रश्क-ए-गुलिस्ताँ हम से हमारा हाल न पूछ सेहन-ए-चमन के वीरानों में सूरत देख बहारों की इक बुझती लकड़ी से इक शो'ला लहराया है जिस वक़्त ख़ाना-ब-दोशों के खे़मे में बात छिड़ी मटियारों की तेरे हिज्र में जाम न खनकें पत्ता न खड़के आह न हो किस दरिया में डूब मरें आवाज़ें चौकी-दारों की उस बे-रुख़ ने बेदर्दी से रातों रातों रुलवाया दर्द का हद से बढ़ जाना ठहरी जो दवा बीमारों की आओ इक दो पल सुस्ता लें माज़ी की दीवार तले सेज भी है नौरस कलियों की बरखा भी अँगारों की ऐसे कहाँ नसीब हमारे बायाँ अंग फड़क उट्ठे कौन ख़बर है दुखिया जाग में हम पापी दुखियारों की हम को किसी से गिला नहीं है जान गए पहचान गए वीराँ दिलों के वीराने हैं दुनिया दुनिया-दारों की एक ज़माना गुज़रा हम भी तेरे शहर के बासी थे आज भी आँखों में फिरती है सूरत तेरे दयारों की गो क़दमों से जुदा हुए वो राह-गुज़ारें देर हुई लेकिन दिल पर जम सी गई है धूल इन राह-गुज़ारों की ख़ैर उन दिनों तो चाक-गरेबानों की इज़्ज़त होती थी आज तो ख़ैर से तेरे शहर में इज़्ज़त है दस्तारों की 'अश्क' मिरे अशआ'र के आतिश-पारों से धीरे धीरे बस्ती बस्ती फैल रही है आँच इन के रुख़्सारों की