दिल जिस का दर्द-ए-इश्क़ का हामिल नहीं रहा वो शख़्स तेरे प्यार के क़ाबिल नहीं रहा जब भी हिनाई हाथों से गेसू सँवर गए आईना-ए-बहार मुक़ाबिल नहीं रहा हर आस्ताँ से लौट के आना पड़ा उसे जो तेरे दर पे आने के क़ाबिल नहीं रहा महरूमियाँ ही जिस का मुक़द्दर हैं दोस्तो वो महफ़िल-ए-नशात के क़ाबिल नहीं रहा जब तुम न थे तो कुछ भी नहीं था बहार में तुम आ गए तो कोई मुक़ाबिल नहीं रहा दीवाने तेरे डूब गए गहरी नींद में ज़िंदाँ में शोर-ए-तौक़-ओ-सलासिल नहीं रहा जब आप मुस्कुराए ग़म-ए-दिल की बात पर दिल दर्द को छुपाने के क़ाबिल नहीं रहा तन्हाइयों की बज़्म ही अच्छी रही 'ख़याल' महफ़िल में पुर-सुकून कभी दिल नहीं रहा