दिल जो ज़ेर-ए-ग़ुबार अक्सर था कुछ मिज़ाज इन दिनों मुकद्दर था इस पे तकिया किया तो था लेकिन रात-दिन हम थे और बिस्तर था सरसरी तुम जहाँ से गुज़रे वर्ना हर जा जहान-ए-दीगर था दिल की कुछ क़दर करते रहियो तुम ये हमारा भी नाज़-परवर था बा'द यक उम्र जो हुआ मा'लूम दिल उस आईना-रू का पत्थर था बारे सज्दा अदा किया तह-ए-तेग़ कब से ये बोझ मेरे सर पर था क्यूँ न अब्र-ए-सियह सफ़ेद हवा जब तलक अहद-ए-दीदा-ए-तर था अब ख़राबा हुआ जहानाबाद वर्ना हर इक क़दम पे याँ घर था बे-ज़री का न कर गिला ग़ाफ़िल रह तसल्ली कि यूँ मुक़द्दर था इतने मुनइ'म जहान में गुज़रे वक़्त रेहलत के किस कने ज़र था साहिब-ए-जाह-ओ-शौकत-ओ-इक़बाल इक अज़ाँ जुमला अब सिकंदर था थी ये सब काएनात ज़ेर-ए-नगीं साथ मोर-ओ-मलख़ सा लश्कर था लाल-ओ-याक़ूत हम ज़र-ओ-गौहर चाहिए जिस क़दर मयस्सर था आख़िर-ए-कार जब जहाँ से गया हाथ ख़ाली कफ़न से बाहर था ऐब तूल-ए-कलाम मत करियो क्या करूँ मैं सुख़न से ख़ूगर था ख़ुश रहा जब तलक रहा जीता 'मीर' मा'लूम है क़लंदर था