दिल जो पहले ही से महव-ए-रुख़-ए-जानाँ होता किस लिए ज़ुल्फ़ में फँसता जो परेशाँ होता ख़ाल क्यूँकर न क़रीब-ए-रुख़-ए-जानाँ होता दौलत-ए-हुस्न का कोई तो निगहबाँ होता जज़्ब करने को न गर गोशा-ए-दामाँ होता मेरे अश्कों से बपा नूह का तूफ़ाँ होता जल्वा-ए-मुसहफ़-ए-आरिज़ जो नज़र आ जाता हिंदवी ख़ाल भी सौ जाँ से मुसलमाँ होता क़द्र दीवानों की सहरा-ए-जुनूँ गर करता ख़ार तक बख़िया-गर-ए-चाक-ए-गरेबाँ होता रंग तो ख़ैर मसीहाई कहाँ से लाता क्यों ख़जिल लब से तिरे ला'ल न ईजाँ होता क़ैस-ओ-फ़रहाद का फिर नाम न लेता कोई मुझ से आबाद न गर कोह-ओ-बयाबाँ होता रू-कश-ए-चेहरा-ए-दिलदार वो होता क्यूँकर दाग़ खाता जो मुक़ाबिल मह-ए-कनआँ' होता दिल से गर शौक़ शहादत का न होता मुझ को मिस्ल-ए-गुल ज़ख़्म-ए-जिगर किस लिए ख़ंदाँ होता मैं वो मजनूँ हूँ कि सहरा में क़दम गर रखता आ के पा-बोस वहीं ख़ार-ए-मुग़ीलाँ होता बेड़ियाँ तोड़ के हम ज़ुल्फ़ में जा कर फँसते गर कहीं जोश-ए-जुनूँ सिलसिला-जुम्बाँ होता आबरू वो मिरे रोने की जो करता कुछ भी अश्क से मेरे ख़जिल गौहर-ए-ग़लताँ होता बहरा गर दौलत-ए-इस्लाम से काफ़िर पाता ख़ाल-ए-रुख़्सार-ए-सनम हाफ़िज़-ए-क़ुरआँ होता आदत-ए-रहम हसीनों में नहीं जब 'तालिब' क्यों मिरे क़त्ल से वो तुर्क पशेमाँ होता