दिल जुदा माल जुदा जान जुदा लेते हैं अपने सब काम बिगड़ कर वो बना लेते हैं हो ही रहता है किसी बुत का नज़ारा ता-शाम सुब्ह को उठ के जो हम नाम-ए-ख़ुदा लेते हैं मजलिस-ए-वाज़ में जब बैठते हैं हम मय-कश दुख़्तर-ए-रज़ को भी पहलू में बिठा लेते हैं ऐसे बोसे के एवज़ माँगते हैं दिल क्या ख़ूब जी में सोचें तो वो क्या देते हैं क्या लेते हैं अपनी महफ़िल से उठाए हैं अबस हम को हुज़ूर चुपके बैठे हैं अलग आप का क्या लेते हैं बुत भी क्या चीज़ हैं अल्लाह सलामत रक्खे गालियाँ दे के ग़रीबों की दुआ लेते हैं शाख़-ए-मर्जां में जवाहर नज़र आते हैं 'अमीर' कभी उँगली जो वो दाँतों में दबा लेते हैं