दिल के बहलाने के अस्बाब कहाँ से लाएँ रोज़ आँखों के लिए ख़्वाब कहाँ से लाएँ फिर वो चेहरा वही भीगे हुए मौसम का नशा तिरी ख़ातिर दिल-ए-बे-ताब कहाँ से लाएँ वो कि था जिन की रिफ़ाक़त पे हमें नाज़ बहुत ढूँड कर अब वही अहबाब कहाँ से लाएँ रोज़ वो दिल पे लगा जाए है इक ज़ख़्म नया दर्द सहने की भी हम ताब कहाँ से लाएँ इक 'जहाँगीर' अंधेरा है उफ़ुक़-ता-ब-उफ़ुक़ साथ अपने कोई महताब कहाँ से लाएँ