दिल के दामन में जो सरमाया-ए-अफ़्कार न था ज़िंदगी थी मगर उस का कोई मेआ'र न था जाने क्यूँ बात मिरी उन को गिराँ-बार हुई लफ़्ज़ ऐसा तो कोई शामिल-ए-गुफ़्तार न था कौन सुनता मिरी किस को मैं सदाएँ देता ऐसी ग़फ़लत थी कि एहसास भी बेदार न था हर तरफ़ धूप थी फैली हुई उर्यानी की सर छुपाने को कहीं साया-ए-किरदार न था आसमाँ चीर के रख देती सदारत मेरी वो तो कहिए कोई दुश्मन पस-ए-दीवार न था ज़हर का घूँट बिल-आख़िर उसे पीना ही पड़ा बात ये थी वो ज़माने का तरफ़-दार न था उस की बेगाना-रवी से उसे समझा मैं ने तिश्ना-ए-ख़ून-ए-वफ़ा था करम-ए-आसार न था जिस को देखा वो हक़ाएक़ पे था पर्दा डाले आईना-दार-ए-हक़ीक़त कोई किरदार न था ए'तिबार-ए-दिल-ए-पुर-शौक़ भी पैदा करते काम आने का फ़क़त जज़्बा-ए-ईसार न था काम आँखों से न लेते तो भला क्या करते दर्द पिन्हाँ थे बहुत पर लब-ए-इज़हार न था सरफ़राज़ी मिरी क़िस्मत में न थी वर्ना 'गुहर' नोक-ए-नेज़ा पे पहुँचना कोई दुश्वार न था