दिल के हाथों शीशा-ए-इदराक भी धुँदला किए जो न देखा चाहिए था हम वही देखा किए धूल हो इस दरस-गाह-ए-इल्म की किस को नसीब अपनी हस्ती जी रहे हैं हम जहाँ रुस्वा किए लम्हा भर को भूल बैठा मैं किसी का कुछ नहीं और मिरे अहबाब मुझ को क्या से क्या समझा किए बर्फ़ हो कर आरिज़ों की इक तमाज़त के तुफ़ैल मुद्दतों हम आतिश-ए-सय्याल से पिघला किए इक लिखे को कितना पढ़ते पढ़ चुके हम उमर भर ज़िंदा रह कर ज़िंदगी की चाह में तड़पा किए आसमाँ छूने की हसरत सब को इस के बावजूद सारे इंसाँ तू ने जब कि ख़ाक से पैदा किए ज़ेब-ए-चेहरा थीं ख़राशें आइने भी धुंद थे होश वाले आँख रख कर वाहिमा समझा किए