दिल के होते भी कहीं दर्द जुदा होता है इक फ़क़त मौत के आ जाने से क्या होता है ज़ुल्म से ज़िक्र-ए-वफ़ा और सिवा होता है उन की हर एक बुराई में भला होता है शोहदा ने'मत-ए-दुनिया की तलब भूल गए ख़ून के घूँट में ऐसा ही मज़ा होता है ख़ुद-फ़रामुशी-ए-उल्फ़त है इलाज-ए-ग़म-ए-दहर बे-ख़बर होश में आना ही बुरा होता है इम्तिहाँ-गाह तिरी महफ़िल-ए-दिलकश है मगर मैं भी देखूँ कि कोई दिल के सिवा होता है तुम से कहता हूँ मिरा ख़ून मिरे दिल पे सही रस्म-ए-दुनिया है कि अपनों से गिला होता है बज़्म से उठ तो चला मैं कि महल था लेकिन रोने वालों से भला कोई ख़फ़ा होता है देख ही लेते हैं सब नाज़-ओ-अदा की सूरत आइना आप का नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है नाला-ए-दिल के असर का न करो मुझ से गिला मुझ को क्या इल्म कि किस तरह रसा होता है तौबा तौबा है यही इश्क़ की बातिल नज़री संग बुत-ख़ाने में आते ही ख़ुदा होता है क्या सबब कुछ तुझे मा'लूम है ऐ अब्र-ए-बहार दिल के मुरझाने से क्यूँ ज़ख़्म हरा होता है वो कहें या न कहें मैं हूँ असर से वाक़िफ़ बोल उठता है वो नाला जो रसा होता है रौशनी दिन की अभी है कि हैं खोए हुए होश देखना है शब-ए-तारीक में क्या होता है हिज्र के दर्द को बढ़ने दे कि है मुज़्दा-ए-वस्ल वही घटता है जहाँ में जो सिवा होता है बद-नसीबी हो तो हर ख़ूब की ख़ूबी है फ़ुज़ूल सुब्ह का वक़्त सितारों को बुरा होता है दिल तो दिल सर भी कभी होता है मम्नून-ए-फ़िराक़ जिस में है इश्क़ ये सौदा वो जुदा होता है मिरे राज़ी ब-रज़ा होने से सब राज़ी हैं वर्ना जो है वो शिकायत से ख़फ़ा होता है अव्वलीं मरहला-ए-इश्क़ है जब हसरत-ओ-मौत कोई बतलाए कि फिर बा'द में क्या होता है बीम-ओ-उम्मीद से किस तरह निकल जाऊँ कि दिल न ठहरता है जहाँ में न फ़ना होता है मुंतज़िर नज़्अ' में चुप है तो उसे चुप न समझ दम का रुक रुक के निकलना भी गिला होता है शब-ए-तारीक में निकला तो है देखूँ 'साक़िब' ना-रसा रहता है नाला कि रसा होता है