दिल के जलते हुए ज़ख़्मों का मुदावा बन कर फूल महके हैं तिरे हाथ का साया बन कर मैं तिरे जिस्म को छूते हुए यूँ डरता हूँ तिश्नगी और बढ़ा देगा तू दरिया बन कर क्या डराएँगे मुक़द्दर के अँधेरे तुझ को मैं चमकता हूँ तिरे हाथ पे रेखा बन कर वक़्त है बर्फ़ की दीवार तो कैसे पिघले ख़ूँ भी आँखों से टपकता नहीं शोला बन कर हाथ आया नहीं कुछ संग-ए-मलामत के सिवा शहर में देख लिया हम ने तमाशा बन कर हादसा कोई हो बुझती नहीं आँखों की चमक जिस्म में फैल गया है वो उजाला बन कर आइने साफ़ थे किस किस को वहाँ झुटलाता हर स्याही नज़र आई मिरा चेहरा बन कर तिश्नगी लाख सही घर से न निकलो 'राशिद' रात सीने में उतर जाएगी सहरा बन कर