दिल को हर सुरमई रुत में यही समझाते हैं ऐसे मौसम कई आते हैं गुज़र जाते हैं हद से बढ़ जाती है जब तल्ख़ी-ए-इमरोज़ तो फिर हम किसी और ज़माने में निकल जाते हैं रात-भर नींद में चलते हैं भटकते हैं ख़याल सुब्ह होती है तो थक हार के घर आते हैं कैसे घबराए से फिरते हैं मिरे ख़ाल ग़ज़ाल ज़िंदगानी की कड़ी धूप में सँवलाते हैं फूल से लोग जो ख़ुश्बू के सफ़र पर निकले देखते देखते किस तरह से मुरझाते हैं छोड़िए जो भी हुआ ठीक हुआ बीत गया आइए राख से कुछ ख़्वाब उठा लाते हैं