दिल को क्या यार के पैकान लिए बैठे हैं साहब-ए-ख़ाना को मेहमान लिए बैठे हैं शोर क्यूँकर न लब-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर से उट्ठे सुनते हैं फिर वो नमक-दान लिए बैठे हैं दम लबों पर है यहाँ शौक़-ए-शहादत मेरा घर में वो ख़ंजर-ए-बुर्रान लिए बैठे हैं सोग ने उन के हज़ारों को किया सौदाई वो अभी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ लिए बैठे हैं दिल-ए-पुर-दाग़ से बहलाते हैं जी को उस बिन हम ये पहलू में गुलिस्तान लिए बैठे हैं उठते ही पहलू से उस पर्दा-नशीं के हम भी चश्म पर गोशा-ए-दामान लिए बैठे हैं कल तो का'बे को चले हज़रत-ए-'तनवीर' थे लो आज मय-नोशी का सामान लिए बैठे हैं