दिल को पीरी में मोहब्बत का तिरी जोश आया बे-ख़ुदी शब को रही वक़्त-ए-सहर होश आया तेरे जल्वे का नज़ारा न हुआ बार-ए-दिगर बे-ख़ुदी के हैं ये मा'नी कि न फिर होश आया ज़हर-ए-गेसू ने मुझे मार ही डाला था मगर लब-ए-जाँ-बख़्श के सदक़े में मुझे होश आया साक़िया मय-कदा-ए-दहर में वो मय-कश हूँ मरते दम तक मुझे अपना भी न कुछ होश आया किस लिए जाम-ओ-सुराही में है साक़ी ताख़ीर अब्र-ए-पुर-शोर पए-ख़ातिर-ए-मय-नोश आया दिल को फिर लाला-रुख़ों से हुई उल्फ़त पैदा अह्द-ए-पीरी में जवानी का मुझे जोश आया इस क़दर शौक़-ए-शहादत है मुझे ऐ क़ातिल तेरे कूचे में जो आया तो कफ़न-पोश आया जो दह्र दहर से वो बार-ए-गुनह ले के गया गो जब आया था अदम से तो सुबुक-दोश आया ख़िलअतें ज़ेर-ए-ज़मीं कौन पिन्हा देता है बाग़-ए-आलम में जो गुल आया क़बा-पोश आया वाइज़ा कर सर-ए-मिंबर न मज़म्मत मय की कुछ बनाए न बनेगी जो यहाँ जोश आया हश्र के दिन जो गुनहगारों की कसरत देखी क़ुल्ज़ुम-ए-रहमत-ए-बारी में अजब जोश आया जिस ने मयख़ाना-ए-दुनिया में ज़रा भी पी ली आ गई मौत प 'तालिब' न उसे होश आया