दिल को रह रह के इंतिज़ार सा है क्या किसी सम्त कुछ ग़ुबार सा है देख कर कश्मकश मनाज़िर की आँख उठाना भी नागवार सा है ज़ुल्फ़-ए-गीती सँवारने वाले सादगी में बड़ा सिंघार सा है इक उन्हें देखो इक मुझे देखो वक़्त कितना करिश्मा-कार सा है जाने क्यूँ हर फ़साना-ए-माज़ी क़िस्सा-ए-मौसम-ए-बहार सा है आप 'महशर' से मिल के देखें तो आदमी वो भी बुर्दबार सा है