दिल लज़्ज़त-ए-निगाह करम पा के रह गया कितना हसीन ख़्वाब नज़र आ के रह गया लब तक शिकायत-ए-ग़म-ए-दिल ला के रह गया उन की नदामतों पे मैं शर्मा के रह गया मेरे दिल-ए-तबाह का आलम न पूछिए इक फूल था जो खिलते ही मुरझा के रह गया मंज़िल से दूर रहरव-ए-मंज़िल था मुतमइन मंज़िल क़रीब आई तो घबरा के रह गया शोरीदगी-ए-नाला-ए-गुस्ताख़ क्या कहूँ इस क़ल्ब-ए-नाज़नीं को भी तड़पा के रह गया बे-गाना-वार जब वो गुज़रते चले गए कुछ बे-क़रार दिल मुझे समझा के रह गया उन के हुज़ूर लब तो मुकर्रर न खुल सके रूदाद-ए-ग़म निगाह से दोहरा के रह गया यूँ ख़त्म दास्तान-ए-मोहब्बत हुई 'शकील' जैसे कोई हसीन ग़ज़ल गा के रह गया