दिल में कुछ ऐसे ग़म-ए-इश्क़ को पाला जाए लब से निकले तो फ़लक तक मिरा नाला जाए कश्ती-ए-दिल को न अब और उछाला जाए अब ये दरिया मिरी आँखों से निकाला जाए टाले जा सकते हैं अक्सर कई बरहम लम्हात वक़्त रहते ही अगर उन को सँभाला जाए आज भी मुझ को यक़ीं है वो मदद कर देगा ले के उस तक जो कोई मेरा हवाला जाए हर तग़ाफ़ुल को त'अल्लुक़ में बदलने के लिए कभी एहसास-ए-तकब्बुर को ही टाला जाए दिन है वो जिस से अँधेरों को जलन होती है रात है जिस के तआ'क़ुब में उजाला जाए कभी अश्कों को भी कुछ दर्द उठाने दीजे दिल का हर बोझ तबस्सुम पे न डाला जाए वो जो सहरा में हैं बे-बर्ग 'हिना' चंद शजर काश उस सम्त भी फूलों का रिसाला जाए