दिल में हसरत कोई बची ही नहीं आग ऐसी लगी बुझी ही नहीं उस ने जब ख़ुद को बे-नक़ाब किया फिर किसी की नज़र उठी ही नहीं जैसा इस बार खुल के रोए हम ऐसी बारिश कभी हुई ही नहीं ज़िंदगी को गले लगाते क्या ज़िंदगी उम्र-भर मिली ही नहीं मुंतज़िर कब से चाँद छत पर है कोई खिड़की अभी खुली ही नहीं मैं जिसे अपनी ज़िंदगी समझा सच तो ये है वो मेरी थी ही नहीं